गुरुवार, 18 जून 2009

मोमबत्तियां, मूली और करेले भी

पितृ सत्तात्मक समाज की गुलामी से त्रस्त हे देवी आप लिखी-पढ़ी हैं, समझदार हैं। विज्ञान उठाएं तो पता चलेगा कि जब मानव ने बंदरों से आदमी के रूप में आना शुरू किया तो उन दलों का संचालन मादाओं के ही हाथ में था, टोलियों (परिवारों शब्द का इस्तेमाल मैं यहां नहीं कर रहा हूं ) की मुखिया मादाएं ही होती थीं। मानव जानवर तो था ही उन दलों में मादाएं का संसर्ग अपने पिता, पति और अपने भाइयों के साथ होता था। राहुल वात्सायन के शब्दों में कहें तो मादाएं अपने पिता पति, भाई पति और पुत्र पति को एन्जॉय करती थीं। लेकिन ऐसा नहीं था कि दल कि हर मादा के हिस्से में पुरुषों का संसर्ग आता हो, वहां सिर्फ मुखिया या यूं क‍हें कि ताकतवर मादा के पास ही अपनी काम पिपासा बुझाने का अधिकार था। अन्य मादाएं चोरी-छिपे या फिर मुखिया को पराजित कर ही संभोग के सुख को प्राप्त कर सकती थीं। धीरे-धीरे यह महसूस हुआ कि मादा शारीरिक रूप से उतनी मजबूत नहीं हैं जितने कि नर (इसी शारीरिक ताकत, पौरुष के कारण बाद में उसे पुरुष कहा गया और फिर इसी से पुरुषार्थ जैसे शब्दों का विकास हुआ।), दरअसल वह गर्भधारण के दौरान और काफी समय उसके बाद भी उतनी फुर्ती के साथ काम नहीं कर सकती थी जितनी की जंगल में अपना अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी होती है। जंगली जानवरों के हमलों में और दूसरे कबीलों के साथ लड़ाईयों के दौरान होने वाली मादा और बच्चों की क्षति, कबीले के विकास में बड़ी बाधा थी । वंश बढ़ोतरी में होने वाली दिक्कतों को दूर करने के मकसद से शिकार मार कर लाने या दूसरे कबीले को लूटने का जिम्मा नर ने अपने कंधों पर ले लिया और मादाओं के जिम्मे आ गया गृह प्रबंधन, जहां भोजन को पकाने, कबीले को भविष्य के लिए तैयार करने के मकसद से बच्चे जनने की महती जिम्मेदारी मादा के हिस्से आ गई। धीरे-धीरे कबीले गांवों, कस्बों और नगरों के रूप में बदले और मानव सभ्य होता चला गया। लेकिन चूंकि मानव का विकास जंगलों से हुआ था अत: मानव में पाश्विकता जन्मजात थी। छीनकर खाना, हमला करना जैसी प्रवृति उसमें जन्मजात थी। इस व्यक्तिगत खूबी की, समूह या यूं कहें कि समाज में कोई जरूरत नहीं थी, इसलिए धीरे-धीरे ऐसी प्रवृति वाले लोगों को असामाजिक की संज्ञा दे दी गई। ऐसी प्रवृत्तियों को दबाने के लिए कायदे कानून का निर्माण हुआ, इन कायदे कानूनों के आधार पर समाज ने संस्‍कारों की कल्‍पना की और फिर समाज उस रूप में पहुंच गया जहां आप इसे देख रही हैं। लेकिन इस विकास यात्रा में कमाने की जिम्मेदारी चूंकि पुरुष पर थी तो उसके पास होता था शिकार का बेहतरीन हिस्सा। स्त्री के हिस्से आता था भोजन का वह हिस्सा जिसे पुरुष ने नकार दिया होता था। स्त्री पुरुष से छीन कर खा तो सकती नहीं थी इसलिए उसने पुरुष को रिझाना, उसकी चिरौरी करना शुरू किया, इसी रिझाने को हम बाद में गायन, नृत्य सरीखी कलाओं की उत्पत्ति के रूप में देखते हैं, जिनमें स्त्री पारंगत है। किसी भी पुरानी सभ्यता के देवी देवताओं को उठाकर देखिए आपको बल या आधिपत्य के लिए इंद्र या हनुमान और कलाओं के लिए सरस्वती सरीखे प्रतीक ही मिलेंगे। लेकिन सभ्यता के इस विकास क्रम में शारीरिक बल गौण होता चला गया, मानसिक बल के सहारे कंपनी और कंट्री दोनों चलने लगे। कंप्यूटर पर बैठकर जैसा काम पुरुष कर सकता है वैसा ही महिलाएं भी कर सकती हैं और उससे भी बढक़र कर सकती हैं, चूंकि क्रिएटिविटी उनके क्रोमोजोम्स में आ गई है। ऐसे में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा कमा रही हैं। अब उन्हें महसूस हो रहा है पुरुष ने सदियों से उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखा है और यातनाएं दी हैं। ऐसी नारीवादी लेखिकाओं की भी कमी नहीं है जो पुरुष पर घड़े भर, भर विष वमन कर रही हैं। हम सभ्य भले ही हुए हैं लेकिन जंगल के नियम यहां अब भी लागू होते हैं व्यक्ति के रूप में मानव की जंगली इच्छाएं अब भी हमेशा अभिव्यक्त होती हैं। चोरी, डकैती, हत्या, झगड़ा या फिर बलात्‍कार करने वालों को असमाजिक की श्रेणी में रखा ही जाता है। अब रही बात मन में सेक्स फेंटेसी की तो, इस के बारे में इतना ही कि कामनाएं मादा के मन में भी उतनी ही हैं जितनी पुरुष के मन में। मोमबत्तियां, मूलियां, गाजरें कभी-कभी करेले भी उनके साथ संसर्ग करते ही हैं। हां मन की इच्छाएं कायदे-कानून, लोकलाज के डर से बाहर नहीं आ पाती। ठीक वैसे ही जैसे सिगरेट के आदी, कश लगाने के लिए एकांत तलाशते हैं। लेकिन कानून के डर से सार्वजनिक रूप से सुट्टा मारने से परहेज करते हैं। यह सिद्धांत रेप के केस में भी लागू होता है। लेकिन एक बात निश्चित है अगर समाज स्त्री सत्तात्मक बना और हजारों साल स्त्री को राज करने का मौका मिला तो आप स्त्री को भी पुरुष के साथ बलात्कार करते देखेंगी। मैं यहां बलात्कार के हक में नहीं खड़ा हूं, मैडम मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि यह जंगली पन हजारों साल की संप्रभुता से पैदा हुआ है इसे कायदे- कानून से रोका जा सकता है, खत्म नहीं किया जा सकता मन से तो बिल्कुल नहीं। लेकिन नारीवादी लेखिकाओं ने बजाय नर और मादा के बीच तालमेल बनाने के उनके बीच कटुता पैदा करने का काम किया है। सिर्फ पुरुषों की ही नहीं महिलाओं की अकेले में होने वाली बातें आप सुनेंगे तो उनकी रतिक्रीड़ाओं को लेकर बयान की जाने वाली फेंटेसी किसी को भी उत्तेजित कर सकती है।

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