शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

नादिरशाह का भूत हावी है भारतीय नेताओं पर

हमारे नेताओं का प्रेरणा स्त्रोत नादिरशाह है। नादिर शाह वही, नादिर शाह जिसके नाम दिल्ली का कत्लेआम दर्ज है। जो भारतीय सूर्य मणि (कोहिनूर ) और मयूर सिंहासन (तख्त-ए-ताउस) भी लूटकर ले गया। जिसे इतिहास में सबसे घृणित लुटेरों में शुमार किया गया है। फारस (अभी ईरान) से चलकर यह लुटेरा 1739 में भारत आया और 13 फरवरी को करनाल में मुगलों के साथ लड़ाई लड़ी। कमजोर मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला हार गया और उसे बंदी बनाकर नादिरशाह दिल्ली पहुंचा। 22 मार्च 1739 का वह दिन दुनिया के इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज है, जब नादिर शाह ने अपने फारसी सैनिकों को दिल्ली में कत्लेआम का हुक्म दिया और इतिहास गवाह है कि अकेले उस एक दिन में दिल्ली में 20-30 हजार लोगों का कत्ल हुआ। इसके बाद मुगल खजाना रंगीला ने नादिरशाह के पैरों में रख दिया। कहते हैं कि कोहिनूर को रंगीला ने अपनी पगड़ी में छिपा रखा था। उसे भी नादिरशाह ने नहीं बख्शा और नादिरशाहर दुनिया का वह सबसे नायाब हीरा कोहिनूर और तख्तेताऊस लूटकर अपने साथ फारस ले गया। अब आप कह सकते हैं कि मैं यह गढ़े मुर्दे क्यों उखाड़ रहा हूं। दरअसल इतिहास के पन्नों में दर्ज यह लुटेरा भारतीय नेताओं कीअंतरात्मा पर छाया हु़आ है। भारत में जब नेता मंत्री बनते हैं तो उन्हें राष्ट्रपति भवन के अशोक हॉल में शपथ दिलाई जाती है। बस सारी गड़बड़ यहीं से शुरू हो जाती है। यह अशोक हॉल दरअसल अंग्रेजों के जमाने में बॉल रूम होता था, मतलब अंग्रेज हुकमरान यहां अपनी पत्नियों के साथ नाच-गाने का आनंद लेते थे। इसी हॉल की दीवार पर चमड़े की एक विशालकाय पेंटिंग लगी है। पेंटिंग में नादिरशाह अपने बेटों के साथ शेर का शिकार कर रहा है। पर्शियन स्टाइल में बनी इस पेंटिंग की खासियत यह है कि इसमें नादिरशाह की आंखों को इस खूबसूरती के साथ उकेरा गया है कि पूरे हाल में कहीं से भी देखा जाए, देखकर ऐसा लगता है जैसे नादिरशाह की आंखें उसे ही देख रही हंै। कहते हैं जब विलिंगडन भारत के वॉयसराय थे तो उनकी पत्नी ने यह पेंटिंग लगवाई थी। अब अंग्रेजों का तो समझ आता है वे लुटेरे थे और लूट की नीयत से भारत आए थे। नादिरशाह उनका आदर्श हो सकता है और उसकी शिकार करती पेंटिंग अंग्रेजों की प्रेरणा का स्त्रोत लेकिन स्वतंत्र भारत में ऐसी पेंटिंग्स का क्या औचित्य है। वह भी उस जगह जहां भारत के मंत्री, उप राष्ट्रपति, न्यायधीश, राज्यपाल आदि भारत के संविधान के प्रति निष्ठा बनाए रखने की शपथ लेते हैं। अब नीचे वे शपथ ले रहे होते हैं और ऊपर से नादिरशाह की आंखें उन्हें घूर रही होती हैं। यही निगाहें नेताजी को भीतर तक भेद जाती हैं। सपने में उसे नादिरशाह ही नजर आता है साथ ही पैदा उसके मन में पैदा हो जाता है देश को लूटने का भाव। प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति बने हैं और साम्राज्यवादी बू वाला महामहिम का संबोधन उन्होंने उतार फैंका है, उन से उम्मीद है कि वे लुटेरी संस्कृति के इस प्रतिक को भी राष्ट्रपति भवन से खदेड़ देंगे। भारतीय लोकतंत्र एवं लोक भावनाओं दोनों के हित में होगा अगर लुटेरे नादिरशाह की ऐसी पेंटिंग का महिमा मंडन राष्ट्रपति भवन में न हो।

शनिवार, 29 सितंबर 2012

अगर औरत के हाथों में आया छैनी-हथौड़ा...


पुरुष सत्ता के खिलाफ लेख पढ़कर मन बेचैन हो उठा है। इसलिए नहीं कि मैं पुरुष सत्ता का पैरोकार हूं बल्कि इसलिए क्योंकि मेरी कोशिश हमेशा चीजों को जैसी वे हैं वैसी क्यों हैं के भाव से देखने की रही है। इस लेख से पुरुष और स्त्री के प्रतिस्पर्धी घोषित किए जाने की बू आ रही है। जबकि वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पुरुष और स्त्री में एक दूसरे के प्रति आकर्षण की प्रारंभिक वजह दोनों की देहिक असमानता ही है। पुरुष की बलिष्ट भुजाओं, चौड़ी सपाट रोम युक्त छातियों, रौबीली भारी आवाज ने महिलाओं को आकर्षित किया है तो महिलाओं की कदली स्तंभ सरीखी चिकनी जंघाओं, पतली कमर, उभरे हुए गोल वक्ष स्थल, भरे मांसल नितंबो व सुरीली आवाज ने पुरुष को उसकी ओर रिझाया है। कल्पना करें कि अगर किसी पुरुष में स्त्रैण शारीरिक गुण और किसी स्त्री में पुरुषोचित्त गुण पैदा हो जाएं तो समाज कैसे रिएक्ट करता है। 5 बार की विश्व चैंपियन मैरी कॉम की चर्चा तो लेख में हुई लेकिन यह बताने की जरूरत लेखिका ने महसूस नहीं की कि खुद को पुरुष सम्मत इस खेल बॉक्सिंग में विजयी बनाने के लिए मैरीकॉम पुरुष खिलाडिय़ों के साथ बॉक्सिंग का अभ्यास किया करती थीं। दूसरे शब्दों में कहूं तो मैरी कॉम ने अपनी मूल प्रकृति के खिलाफ जाकर स्त्रैण गुणों को दबाते हुए अपने भीतर पुरुषोचित्त गुण विकसित करने का भरपूर प्रयास किया । दूसरी ओर हैं टैनिस की सनसनी सानिया मिर्जा जो अपने स्त्रैण शारीरिक सौष्ठव के लिए पहचानी जाती हैं। सानिया का दिया गया वह बयान मुझे अब भी याद है जब शोएब मलिक से शादी से काफी पहले दिए गए इंटरव्यू में सानिया ने कहा था कि उसे छह फुट का पति चाहिए।( मैं उस दौरान नवभारत टाइम्स में था और इस खबर को मैंने सानिया को चाहिए छह फुट का सैंया शीर्षक से प्रकाशित किया था।) मसलन उसकी पूरकता तभी है जब उसे शारीरिक रूप से मजबूत पुरुष की प्राप्ति हो। कोमलता और रचनात्मकता दरअसल नारी के मूल नैसर्गिक गुण हैं। इतिहास गवाह है कभी दुनिया में औरत का सिक्का चलता था। मातृ सत्तामक समाज था और औरतें मुखिया हुआ करती थीं। कुटुम्ब मां के नाम से चलता था कुंती का पुत्र अर्जुन, कौन्तेय कहलता था तो कृष्ण देवकी नंदन या यशोदा नंदन। चूंकि उस समय पुरुष की जरूरत सिर्फ वीर्य दान तक सीमित थी लेकिन बाकि सभी जरूरतें मां ही पूरी करती थी इसलिए परिवार मुखिया मादा का हर कहना मानता था। लेकिन धीरे-धीरे मानव मादा टोलियों से कबिलों में बदलने लगा। गर्भवती या महावारी के दिनों में खून की कमी झेलने वाली मादा का शिकार मार कर लाना उतना सहज नहीं था जितना पुरुष का । ऐसे में धीरे-धीरे काम का बंटवारा हुआ परिवार के स्तर पर भी और समाज के स्तर पर भी। मादा को गृह प्रबंधन सौंप दिया गया। शिकार मार कर लाने वाला पुरुष था इसलिए पुरुष के हिस्से आया शिकार का बेहतरीन हिस्सा अब मादा उससे झगड़ा तो सकती नहीं थी इसलिए उसने पुरुष को रिझाने का प्रयास शुरू किया। इसी से तमाम तरह की नृत्य गायन आदि कलाओं का विकास हुआ। दुनिया में किसी भी सभ्यता का इतिहास उठाइए तो पता चलता है कि जहां कलाओं की  अधिष्ठाता सरस्वती, लक्ष्मी सरीखी देवियां हैं तो बल के अधिष्ठाता इंद्र और हनुमान सरीखे देवता। रही बात हुस्न और हुनर की तो अब मानव सभ्यता उस दौर में है जहां पेट की आग जंगल से आए शिकार से नहीं अपितु प्लास्टिक मनी के माध्यम से बुझती है। रचनात्मकता चूंकि औरतों के क्रोमोजोम्स तक में आ गई है इसलिए अपनी कल्पनाशीलता और शालीनता के कारण औरत पुरुषों से ज्यादा कमा रही हैं। अब संभोग के अलावा मादा को नर की कोई जरूरत नहीं रह गई है। विज्ञान जिस लिहाज से तरक्की कर रहा है उसके हिसाब से देखें तो क्लोनिंग के लिए वीर्य की जरूरत नहीं होगी सिर्फ गर्भ चाहिए होगा जो कि पुरुष के पास नहीं, बल्कि मादा के ही पास है। इस लिहाज से यह कल्पना की जा सकती है कि लगभग 500 साल बाद इस धरती पर से पुरुष जाति विलुप्त हो जाएगी और सिर्फ स्त्रियों का राज होगा। क्या उस समय में पुरुषों की स्थिति आज की महिलाओं जैसी ही नहीं रह जाएगी जो अपना क्लोन बनवाने के लिए या तो किसी महिला के गर्भ की मदद चाहेंगे या फिर मशीन की। रही बात बाजारवाद को कोसने की तो औरत को समझना चाहिए बाजारवाद ने उसे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया है, अन्यथा अब भी औरत मध्य युगीन घूंघट में सिसक रही होती। नौकरी व कामधंधे की स्वतंत्रता मिली है। नारी के पास जो खरीदने की ताकत पैदा हुई है उसने उसे पुरुषों की तरह ही सोचने का मौका दिया है। उसके हाथों में भी अब जाम है और होठ सिगरट का सुट्टा लगाने को बेकरार। समाज में वैश्याओं का प्रचलन है तो पुरुष वैश्याओं का भी। बात सिर्फ परचेजिंग पावर की है। नारी के पास खरीदने की शक्तिआएगी तो पुरुष वैश्यालय भी निश्चित ही स्थापित होंगे। अगर औरतों के हाथों में प्रतिमाएं गढऩे के लिए छैनियां और हथौड़े आए और उसे अपनी कल्पना के आकर्षक पुरुष को मूर्त रूप देने का मौका मिला तो निश्चित ही बड़े और उत्तेजित यौनांग वाले पुरुषों के बुत खुजराहो सरीखी जगहों पर नजर आएंगे। मैं फिर कहता हूं औरत और मर्द की जो स्थिति आज समाज में है वह सिर्फ समय के कारण है। समय बदलेगा तो दोनों की स्थितियां बदल जाएंगी। कुछ नहीं बदलेगा तो दोनों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण। उसी आकर्षण के वशीभूत मर्द ने औरत को कयानात की सबसे खूबसूरत चीज माना है।

गुरुवार, 18 जून 2009

मोमबत्तियां, मूली और करेले भी

पितृ सत्तात्मक समाज की गुलामी से त्रस्त हे देवी आप लिखी-पढ़ी हैं, समझदार हैं। विज्ञान उठाएं तो पता चलेगा कि जब मानव ने बंदरों से आदमी के रूप में आना शुरू किया तो उन दलों का संचालन मादाओं के ही हाथ में था, टोलियों (परिवारों शब्द का इस्तेमाल मैं यहां नहीं कर रहा हूं ) की मुखिया मादाएं ही होती थीं। मानव जानवर तो था ही उन दलों में मादाएं का संसर्ग अपने पिता, पति और अपने भाइयों के साथ होता था। राहुल वात्सायन के शब्दों में कहें तो मादाएं अपने पिता पति, भाई पति और पुत्र पति को एन्जॉय करती थीं। लेकिन ऐसा नहीं था कि दल कि हर मादा के हिस्से में पुरुषों का संसर्ग आता हो, वहां सिर्फ मुखिया या यूं क‍हें कि ताकतवर मादा के पास ही अपनी काम पिपासा बुझाने का अधिकार था। अन्य मादाएं चोरी-छिपे या फिर मुखिया को पराजित कर ही संभोग के सुख को प्राप्त कर सकती थीं। धीरे-धीरे यह महसूस हुआ कि मादा शारीरिक रूप से उतनी मजबूत नहीं हैं जितने कि नर (इसी शारीरिक ताकत, पौरुष के कारण बाद में उसे पुरुष कहा गया और फिर इसी से पुरुषार्थ जैसे शब्दों का विकास हुआ।), दरअसल वह गर्भधारण के दौरान और काफी समय उसके बाद भी उतनी फुर्ती के साथ काम नहीं कर सकती थी जितनी की जंगल में अपना अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी होती है। जंगली जानवरों के हमलों में और दूसरे कबीलों के साथ लड़ाईयों के दौरान होने वाली मादा और बच्चों की क्षति, कबीले के विकास में बड़ी बाधा थी । वंश बढ़ोतरी में होने वाली दिक्कतों को दूर करने के मकसद से शिकार मार कर लाने या दूसरे कबीले को लूटने का जिम्मा नर ने अपने कंधों पर ले लिया और मादाओं के जिम्मे आ गया गृह प्रबंधन, जहां भोजन को पकाने, कबीले को भविष्य के लिए तैयार करने के मकसद से बच्चे जनने की महती जिम्मेदारी मादा के हिस्से आ गई। धीरे-धीरे कबीले गांवों, कस्बों और नगरों के रूप में बदले और मानव सभ्य होता चला गया। लेकिन चूंकि मानव का विकास जंगलों से हुआ था अत: मानव में पाश्विकता जन्मजात थी। छीनकर खाना, हमला करना जैसी प्रवृति उसमें जन्मजात थी। इस व्यक्तिगत खूबी की, समूह या यूं कहें कि समाज में कोई जरूरत नहीं थी, इसलिए धीरे-धीरे ऐसी प्रवृति वाले लोगों को असामाजिक की संज्ञा दे दी गई। ऐसी प्रवृत्तियों को दबाने के लिए कायदे कानून का निर्माण हुआ, इन कायदे कानूनों के आधार पर समाज ने संस्‍कारों की कल्‍पना की और फिर समाज उस रूप में पहुंच गया जहां आप इसे देख रही हैं। लेकिन इस विकास यात्रा में कमाने की जिम्मेदारी चूंकि पुरुष पर थी तो उसके पास होता था शिकार का बेहतरीन हिस्सा। स्त्री के हिस्से आता था भोजन का वह हिस्सा जिसे पुरुष ने नकार दिया होता था। स्त्री पुरुष से छीन कर खा तो सकती नहीं थी इसलिए उसने पुरुष को रिझाना, उसकी चिरौरी करना शुरू किया, इसी रिझाने को हम बाद में गायन, नृत्य सरीखी कलाओं की उत्पत्ति के रूप में देखते हैं, जिनमें स्त्री पारंगत है। किसी भी पुरानी सभ्यता के देवी देवताओं को उठाकर देखिए आपको बल या आधिपत्य के लिए इंद्र या हनुमान और कलाओं के लिए सरस्वती सरीखे प्रतीक ही मिलेंगे। लेकिन सभ्यता के इस विकास क्रम में शारीरिक बल गौण होता चला गया, मानसिक बल के सहारे कंपनी और कंट्री दोनों चलने लगे। कंप्यूटर पर बैठकर जैसा काम पुरुष कर सकता है वैसा ही महिलाएं भी कर सकती हैं और उससे भी बढक़र कर सकती हैं, चूंकि क्रिएटिविटी उनके क्रोमोजोम्स में आ गई है। ऐसे में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा कमा रही हैं। अब उन्हें महसूस हो रहा है पुरुष ने सदियों से उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखा है और यातनाएं दी हैं। ऐसी नारीवादी लेखिकाओं की भी कमी नहीं है जो पुरुष पर घड़े भर, भर विष वमन कर रही हैं। हम सभ्य भले ही हुए हैं लेकिन जंगल के नियम यहां अब भी लागू होते हैं व्यक्ति के रूप में मानव की जंगली इच्छाएं अब भी हमेशा अभिव्यक्त होती हैं। चोरी, डकैती, हत्या, झगड़ा या फिर बलात्‍कार करने वालों को असमाजिक की श्रेणी में रखा ही जाता है। अब रही बात मन में सेक्स फेंटेसी की तो, इस के बारे में इतना ही कि कामनाएं मादा के मन में भी उतनी ही हैं जितनी पुरुष के मन में। मोमबत्तियां, मूलियां, गाजरें कभी-कभी करेले भी उनके साथ संसर्ग करते ही हैं। हां मन की इच्छाएं कायदे-कानून, लोकलाज के डर से बाहर नहीं आ पाती। ठीक वैसे ही जैसे सिगरेट के आदी, कश लगाने के लिए एकांत तलाशते हैं। लेकिन कानून के डर से सार्वजनिक रूप से सुट्टा मारने से परहेज करते हैं। यह सिद्धांत रेप के केस में भी लागू होता है। लेकिन एक बात निश्चित है अगर समाज स्त्री सत्तात्मक बना और हजारों साल स्त्री को राज करने का मौका मिला तो आप स्त्री को भी पुरुष के साथ बलात्कार करते देखेंगी। मैं यहां बलात्कार के हक में नहीं खड़ा हूं, मैडम मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि यह जंगली पन हजारों साल की संप्रभुता से पैदा हुआ है इसे कायदे- कानून से रोका जा सकता है, खत्म नहीं किया जा सकता मन से तो बिल्कुल नहीं। लेकिन नारीवादी लेखिकाओं ने बजाय नर और मादा के बीच तालमेल बनाने के उनके बीच कटुता पैदा करने का काम किया है। सिर्फ पुरुषों की ही नहीं महिलाओं की अकेले में होने वाली बातें आप सुनेंगे तो उनकी रतिक्रीड़ाओं को लेकर बयान की जाने वाली फेंटेसी किसी को भी उत्तेजित कर सकती है।

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

हाथी खाएगा इडली-डोसा


हाथी अब इडली-डोसा का भोग लगाने की तैयारी में है। तख्त-ए-दिल्ली को फतह करने के मकसद से बीएसपी राजधानी में रहने वाले दक्षिण भारतीयों को नीले झंडे के नीचे लाने में जुटी है ; दरअसल बीएसपी के रणनीतिकार राजधानी के हर उस वर्ग को छूने की कोशिश कर रहे जो अभी तक राजनेताओं की नजरों से अछूता रहा है। यूपी में सोशल इंजीनियरिंग का कमाल दिखा चुकी यह पार्टी अब दिल्ली में रह रहे हर उस मतदाता को खंगालने में जुटी है जिसकी सुध आज तक किसी वोटर ने नहीं ली है; राजधानी में कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल व आंध्र प्रदेश के मूल निवासी बडी तादाद में रह रहे हैं; अकेले आंध्र प्रदेश के 9-10 लाख लोग दिल्ली में रह रहे हैं, आंध्र भवन में रजिस्टर्ड लोगों की तादाद ही 6 लाख से ज्यादा है; दरअसल मायावती की निगाहें अब दिल्ली की कुर्सी पर हैं बिना दक्षिण भारत में पांव फेलाए दिल्ली फतह की उम्मीद बेकार है इसी गणित को समझ कर पहले दिल्ली के चुनावों में दक्षिण भारतीयों को और फिर उनके सहारे दक्षिण भारत में अपनी पहुंच बनाने की कोशिश इस बार बीएसपी करेगी

शनिवार, 1 नवंबर 2008

ओ बापू ! तुम सिर्फ एक ब्रांड हो

सत्य के पुजारी, अमन के देवता
ओ बापू ! आज इस देश के लिए
तुम सिर्फ एक ब्रांड हो
जो बेचा जाता है हर चुनाव से पूर्व
तरह-तरह कि दुकानों पर
लूट ली गई है तुम्हारी खादी, लकुटिया
और तुम्हारा नैतिकतावादी दर्शन
तुम्हारे आदर्शों पर चलने का ढोंग रचकर
चुपचाप बैठे हैं तुम्हारे बन्दर
न वे देखते हैं हर ओर बिखरा भ्रष्टाचार,
न सुनते हैं भूख का कोलाहल
न वे बोलते हैं सत्य कि भाषा
माफ़ करना बापू ! हम कृपण लोग
नहीं चुका सकते तुम्हारे बलिदानों का दाम
सिर्फ कैश कर सकते हैं तुम्हारा नाम,
तुम्हारा काम और तुम्हारा राम

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

दिल्ली के कोठे

कोई दौर था जब हुस्न की यह बस्ती घुंघरूओं कीझनकार और गजरे की गंध से शाम होते ही छनकने, महकने लगती। यह बस्ती तब भी बदनाम ही थी, लेकिन तब लंपट रईस आज की तरह इस बस्ती का नाम सुनकर नाकभौं सिकोडऩे की बजाय लार टपकाते थे। गर्म गोश्त का व्यापार यहां तब भी होता था और देश के छोटे शहरों की तवायफें यहां आकर अपने हुस्न और हुनर का (हुनर इसलिए क्योंकि तब तवायफ के लिए अच्छी अदाकारा होना पहली शर्त था) सिक्का जमाने का सपना देखतीं। लखनऊ, कोलकाता और बनारस केकोठों का हर घुंघरू यहांआकरछनकने की तमन्ना रखता। सूरज ढलते ही पनवाडिय़ों की दुकानें आबाद हो जातीं। तांगों, इ और मोटर गाडिय़ों में सवार हो कर इत्र-फुलेल में डूबे शहर के रईस, अंग्रेज अफसर, ठेकेदार, छोटी-बड़ी रियासतों बिगड़ैल नवाबजादे यहां पहुंचने लगते। टोपी और तुर्रेदार पगडिय़ों की शान ही निराली होती। ठे वालियों पर बरसने वाले सिक्कों के वजन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तवायफों की बांदियों पास भी सेर दो सेर सोना केहोना आम बात थी।
हालां अंग्रेज फौजी भी शरीर गर्मी निकालने के लिए अक्सर यहां आते, लेकिन तब भी जीबीरोड की तवायफों का एक स्तर होता था। दूर असम और बंगाल से लाई गई तवायफें अक्सर गोरे फौजियों को सस्ते में अपनी सेवाएं देतीं। लेकिन उस दौर का सस्ता भी फौजियों की एक-एक हफ्ते की तनख्वाह के बराबर हो जाता था। लोहे की पटरियों पर लगातार दौड़ते रेल के इंजन, थककर जैसे कोयला पानी लेने के लिए नई, पुरानी दिल्ली के स्टेशन पर रुकते, ठीक वैसे ही समाज को चलाने वाला तबका जब थक जाता तो जीबी रोड के कोठों पर थकान उतारने चला आता। लेकिन वक्त किसी का गुलाम नहीं है। समय का पहिया घूमता है तो हुस्न का उजाला हर ओर बखेरने वाले नूरानी चेहरों पर झुर्रियों का अंधेरा छा जाता है। ठीक यही हाल इन दिनों दिल्ली के इस लाल बत्ती इलाके का हो गया है। वेश्याओं की यह बस्ती दरअसल बुढ़ा गई है। समय के साथ खुद को बदलने में नाकामयाब रही यह बस्ती हुस्न ढली वेश्या की तरह है, जिसकी ओर अब रईस कतई नहीं देखते और उसके हिस्से में आते हैं सिर्फ पुराने और फटेहाल ग्राहक।
कभी रईसों के राजसी ठाठ देख चुकी यह बस्ती अब निम्न और निम्न मध्यम वर्गीय लोगों की थकान उतारने का जरिया रह गई है। गांव देहात से लाई गई धंधेवालियां जिन्हें एनजीओ की भाषा में सेक्स वर्कर कहा जाता है, इस भड़कीले शहर के युवाओं को रिझाने में नाकामयाब हैं। फूहड़ तरीके से लगाई गई गहरी लाल लिपस्टिक और ग्राहको को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए करारी आवाज में दी गई गालियां उनकी बोल्डनेस को नहीं बदतमीजी को ही दर्शाते हैं। कमाई के लिए आग्रह इतना ज्यादा कि कई बार तो सड़क चलते ग्राहकों का हाथ पकड़ कर भीतर खींचने से भी नहीं चूकतीं। जहां कभी इत्र फुलेल और गजरों की महक गूंजती थी आज सिर्फ सीलन और वीर्य की मिली जुली अजीब सी गंध तारी है। कोठो के कोने गुटखों की पीकों से रंगे पड़े हैं और ऐसे माहौल में एड्स की भयावहता का डर कई गुना होकर नजर आता है। नजाकत और तहजीब की मूर्ति रही तवायफें अब बदतमीजी की मिसाल बन गई हैं। महज 40-40 रुपये में अपने शरीर पर एकबार सवारी का मौका देने वाली ये तवायफें सिर्फ मजदूरों और गवईं अधेड़ों का खिलौना रह गई हैं। ऐसा नहीं है ·कि अब रईसों ने हुस्न की कद्र करना बंद कर दिया है, बल्कि सच यह है तकनीक के पंख लगाकर यह कारोबार पहले के मुकाबले और ज्यादा तेजी से फैला है। वीक एंड्स में एनसीआर के होटलों और फार्महाउसों में पहुंचने वाले दम्पतियों की उम्र का अंतर और उनके हावभाव बता देते हैं कि ये कुछ भी हों पर पति-पत्नी नहीं हैं। संचार के इस युग में रंभा और उर्वशियां कोठे वालियों की बजाय कॉलगर्ल ·के रूप में परिवर्तित हो गई हैं। महंगे मोबाइलों के की पैड पर थिरकती महंगी नेलपॉलिश से सजी अंगुलियां। जींस टॉप जैसे आधुनिक लिबास और महंगी सिगरटों के कश लगाते उनके करीने से सजाए गए खूबसूरत होठ एक रात के लिए बीसियों हजार तक खर्च करा डालते हैं। फिर अगर रंगीन रात की यह साथी बॉलिवुड की कोई अदाकारा हो तो एक रात की फीस लाखों में पहुंच जाती है। कोठेवालियों और कॉलगर्ल्स के बीच पैदा हुआ यह अंतर उनके बच्चों की परवरिश में भी साफ झलकता है। जहां कोठेवालियों के बच्चों को मिलता है वही गला-सड़ा माहौल जो लड़कों को भड़वा और लड़कियों को वेश्या बनने के लिए मजबूर करता है तो कॉलगर्ल्स के बच्चों को भनक भी नहीं लग पाती कि उनकी मां कैसे पेशे से पैसों का पहाड़ पैदा करती है। महंगे पब्लिक स्कूलों में तालीम पाने वाले इन बच्चों ·को हमेशा एक खुशगवार माहौल मिलता है। तकनीक और प्रस्तुतीकरण ने इन कॉलगर्ल्स को कोठेवालियों के मुकाबले खासे आगे ले जाकर खड़ा कर दिया है। क्लाइंट द्वारा मिलने वाले महंगे गिफ्ट और हांगकांग-सिंगापुर जैसी जगहों में शॉपिंग के लिए ले जाया जाना, इन आधुनिक मेनकाओं की हैसियत का अहसास कराने के लिए काफी है।

रविवार, 28 सितंबर 2008

प्लेन में धक्का

गाडिय़ों में धक्का लगाना आम बात है लेकिन प्लेन में धक्का लगाना पड़ जाए तो...
चीन के झेंगजू एयरपोर्ट पर क्रू को एक अजीब स्थिति से दो चार होना पड़ा। दरअसल, गुइलिन से आ रहे विमान मैं तकनीकी खराबी आ गई एयरपोर्ट पर उतरना पड़ा। पायलट ने ऐन वक्त पर ब्रेक लगा दिया और सभी यात्री सुरक्षित बच गए। इस खराबी के कारण विमान रनवे पर ही रुका रहा, लेकिन वहां से हटाने के लिए एयरपोर्ट के 30 कर्मचारियों को लगभग आधे मील तक विमान को धक्का लगाना पड़ा। 69 यात्री और चालक दल के 7 सदस्य विमान में ही बैठे रहे। 2 घंटे की मशक्कत के बाद वे खराब विमान को रनवे से हटाने में कामयाब रहे। एक कर्मचारी ने कहा कि शुक्र है विमान का वजन केवल 20 टन था, वरना हम लोगों की हालत पतली हो जाती। मुझे यहां काम करते 10 साल हो गए, लेकिन ऐसी नौबत कभी नहीं आई थी। यह खबर सुनने के बाद संता ने बंता से कहा शुक्र है की धक्का जमीन पर खड़े प्लेन में ही लगाना पड़ा अगर कहीं धक्का आसमान में खराब हुए प्लेन में लगाना पड़ता तो मेरा तो पसीने के मारे बुरा हाल हो जाता